भारतीय संस्कृति एंव वृक्षों में देवता का आरोपण किया गया है। वृक्ष पूजन हमारी गौरवशाली संस्कृती ने वृक्षों को ‘धर्म-पुत्र’ माना है। जिस प्रकार पुत्र श्राध्दा, तर्पण आदि से अपने पितरों का उध्दार करता है, उसी प्रकार वृक्षारोंपण करके उसको वर्षा में जल वर्षण के आघात से, शिशर में तुषारापात और ग्रीष्म में सूर्यताप से अपने बच्चों की तरह बचाते हुए अपने पितरों तथा भावी पीढ़ी ता उध्दार करता है। वृक्ष को पुत्र-पौत्रादि-संतति के रूप में माना गया है। वृक्ष आपने पुष्पों से देवताओं की, पत्तों से पितृगणों की और छाया से आतिथियों, राहगीरों और इस चराचर जगत के समस्त जीव-जन्तुओं की सेवा-सुश्रुषा करते है। वृक्ष के पुष्प से निकली सुगन्ध और मधुर फलों से आत्मा को तृप्ति मिलती है। देवताओं की भांति वृक्षों की पूजन-अर्चना की जाती हा। पीपल, नीम, बरगद, कदम्ब, अशोक, इमली, शमी, केला, बिल्व-पत्र और तुलसी-पूजन तो सर्वविदित है। स्त्रियां व्रतादि रखकर उनकी परिक्रमा करके जलार्पण करती है। संध्या के उपरान्त किसी वृक्ष के पत्ते तोड़ना तरू पाप माना जाता है। वृक्षों से ही हिमालय की सधन वन राशि की हरीतिमा, ब्रज की सुखद छाया वाली सघन कुंजें और विध्याचल के वैभवपूर्ण विपिन माना-मात्र के ह्द्य औंर नेत्रों को अपने यौवन की ओर आकर्षित कर लेते है। वृक्ष मानव जाति को परोपकार और रक-कल्याण की शिक्षादेते है। मनुष्य के निराशाओं से भरे जीवन में आशा और धौर्य का संचार वृक्ष ही करते हैं। मनुष्य जब यह देखता है कि कटा हिआ वृक्ष भी कुछ ही दिनों बाद फिर हरा-भरा हो उठता है तो उसकी समस्त निराशाऍ शांत होकर धौर्य और साहस में परीणित हो जाती है। वृक्ष हमारी नैतिक, सामाज और आर्थिक समृध्दि के मूल स्त्रोत हैं। प्रकृति में अनेक जाति-प्रजाति के वृक्ष बहुताय से पाये जाते हैं। जिनके अपने अलग-अलग गुण,स्वभाव, रूप-रंग आकृति, फल-फूल आदि होते हैं। हर पेड़ पौधे का अपना विशिष्ट महत्व होता है। इसमें ‘कल्पवृक्ष’ भी एक है। पादप जगत का कोई भी वृक्ष इसकी विशालता, दीर्घजीविता, शक्ति-क्षमता, अनुपमता और आराध्यता में इसकी सानी नहीं रखता। देव और दानव (सुर-असुर) ये दो मनोवृत्तिया हैं। धर्मानुकूल सदाचरण और व्यवहार ‘देव’ श्रेणी में आता है। और धर्म और मानविय आदर्शो के विरूध्द व्यवहार और क्रिया-कलाप ‘दानव’ श्रेणी में आते हैं।
हमारी पौराणिक मान्यताओं में कहा जाता है कि एक बार देवताओं और दानवों ने मिलकर ‘क्षीर-सागर’ (दूध का अलौकिक समुंद्र) का मंथन किया था। समुद्र-मंथन क्रिया से चौदह रत्न ‘क्षीर-सागर’ में से निकले। जो निम्नलिखित थे श्री, रंभा, विष, वारूणि, अमि, शंख, गजराज। धनवंतरि, धन, धेनु, शशि, कल्पवृक्ष, मणि, बाज। समुद्-मंथन से निकले ‘कल्पवृक्ष’ को देवराज ‘इंद्र’ को दे दिया गया और उन्होंने इसे ‘सूर-कानन’ (नन्दन-कानन) में स्थापित कर दिया था। तब से इसे देव लोक का वृक्ष कहते हैं। इसका नाश कल्पांत तक नहीं होता, अतः इसे ‘कल्पतरू’ नाम दिया गया। इसके अन्य नाम यथा- सुर तरु, देवद्रुम, कल्पवृक्ष, कल्पतरू, गोरख इमली, गोनिक चिंटज, हट्टी-कटियन और बाओबाब आदी है। वनस्पति विज्ञ मानते हैं कि कल्पवृक्ष अनिवार्यत: ऊष्णदेशिय अफ्रीका का पेड़ है। वहां यह उत्तर में सूदूर ट्रांसवाल तक विस्तीर्ण है। भारतवर्ष में लखनऊ, इटावा, कोयम्बटूर, गोलकुंडा, उज्जैन के निकट मांडू दुर्ग और औरंगाबाद में कई पेड़ है। राजस्थान में कल्पवृक्ष के 3 वृक्ष मांगलियावास (जो अजमेर से 27 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है) मैं अधिक प्रौढ़ व भीमकाय रूप में विद्यमान है। इसके अतिरिक्त बलून्द (टौंक) बिलाड़ा (जोधपुर), शाहपुर (भीलवाड़ा), उदयपुर बांसवाड़ा और आलोट (झालावाड़) में भी विशाल भीम काय कल्पवृक्ष जीवित है। कल्पवृक्ष 30 मीटर की ऊंचाई तक ही बढ़ पाते हैं, पर इनके तने अकल्पनीय रूप से मोटे होते हैं। कल्पवृक्ष की शाखाएं मोटी होती है और पत्तियाँसेमल की भांति 5 से 7 हथेली की तरह होती है। यह गहरी हरी होती है। सदियों में झड़ जाती है। और वर्षा काल में नहीं चमकीली पत्तियां फिर फूट जाती है। जो शुरू में सरल ही होती है। नई पत्तियों के साथ एक-एक लटकी हुई, पिलाम कली, अमृत के आकार की आती है। जिससे बड़े फूल 15 से 18 सेंटीमीटर चौड़ाई के खिलते हैं यह सुगन्ध विहीन होते हैं तथा चमगादड़ व पक्षियों द्वारा परागित होते हैं फूल डिलीजी (एक ही पुष्प में नर व मादा) होते हैं। फल सर्दियों में बनता है और ‘लौकी जैसा’ 20- 30 सेंटीमीटर लंबा वह 25 सेंटीमीटर गोलाई का होता है फल का गददर-इमली का गुदा, स्वादिष्ट व खट्टा-मीठा होता है।
वेसे ‘कल्पवृक्ष’ का शाब्दिक अर्थ-स्वर्ग का यह वृक्ष, जो मुँह मांगी वस्तुएँ प्रदान करने के साथ मन की सब इच्छाओं की पूर्ति भी करता है। ऐसा ही एक दिव्य वृक्ष है- बिलाड़ा शहर से दो किलोमीटर पूर्व की ओर। यह वृक्ष अपने में अनेक पौराणिक, धार्मिक और आध्यात्मिक रहस्यों को दबाये मीन साधक, तपस्वी की भांति लुओं सर्द हवाओं, आंधी- तूफान और वर्षा के भीषण प्रहारों को सहता हुआ अविचल भाव से खड़ा है। यह वृक्ष यहाँ कब से है और कहाँ से आया था कैसे बना? इसके बारे में अनेक मत हो सकते हैं। जिसमें से एक मत यह भी है की राजा बलि ने अपने सीवें यज्ञ में सारे देवी- देवताओं, ऋषि-मुनियों साधक तपस्वी जनों के साथ स्वर्गलोक के दिव्य-वृक्ष ‘कल्पवृक्ष’ को भी यज्ञ साक्षी के लिए आमंत्रित किया था। हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यज्ञों में पवित्र वृक्षों का पूजन किया जाता है, उनकी लकड़ियां समीधा के रूप में काम ली जाती है और उनका दर्शन करना अभी यज्ञ में अपना विशेष महत्व रखता है। कहते हैं- तब से यह वृक्ष यहां स्थित है। इस विशाल वृक्ष का तना है इसका का घेराव लगभग 260 इंच है। इसकी दानेदार छाल देखने में तो बड़ी कठोर लगती है, परंतु कुरेदते ही रूई के भाती कोमल लगती है। भक्तगण यह भी कहते हैं कि एकटक होकर यदि इस वृक्ष के तनो छाल को निहारा जाए तो उसमें राम और लक्ष्मण की संपूर्ण जीवन- लीलाएं दृष्टिगोचर होती है तथा राम-सीता और लक्ष्मण के वन-भ्रमण के दृश्य भी दिखते हैं जो संभवत दृष्टिभ्रम भी हो सकता है। और भक्तों के मन मैं राम-सीता की अटूट श्रद्धा और भक्ति भी हो सकती है।
जनश्रुति के अनुसार पहले इस वृक्ष पर फल भी लगते थे। लेकिन अभी केवल ही आते हैं और झड़ जाते हैं। कहते हैं कि एक बार दीवान हरिसिंहजी साहब माटमोर बाग और रनिया बेरे पर जा रहे थे तो वे कुछ देर के लिए कल्पवृक्ष की शीतल छाया में विश्राम करने के लिए रुके, तभी एक फल उनके सिर पर आकर गिरा। वचन-सिद्धि के साधक दीवानजी ने क्रोधित होकर इस कल्पवृक्ष को श्राप दिया कि-“फूल जे पण” फल जे मत। तब से यह माना जाता हैं कि इस श्राप के बाद से केवल इस वृक्ष पर फूल ही आते है, फल परिपक्व नहीं होते है। जैसा कि कहा भी गया है- पण, फल जे मत, श्राप तुझे यह कल्पतरू। आएंगे फूल झड़ जाएंगे,हरी-वचन ये अरू- बरू। मनवांछित फल देने वाला मनसा पूरण यह वृक्ष बहुत ही उपयोगी है। इसकी शाखाओं व तने के खोकलों में जल एकत्र हो जाता है जो वन्य- जीव-जंतुओं के लिए भी लाभदायक है। मधुमक्खियों के छत्ते भी इस वृक्ष पर खूब लटकते हैं। इस पेड़ की पत्तियां पालक की तरह सब्जी के प्रयोग में आती है तथा पशुओं के लिए भी उत्तम चारा है। इसकी कोमल जड़े भी खाई जाती है। बिलाड़ा की पावन धरा पर खड़े इस कल्पवृक्ष की शीतल सघन छाया मैं प्रतिदिन सैकड़ों श्रद्धालु स्त्री-पुरुष मन्नतें मांगने आते हैं आस्था- विश्वास श्रद्धा-भक्ति के तारों से बंधे स्त्री-पुरुष एकाग्रचित्त होकर चित की निर्मलता से जो भी मनौती मांनते हैं, वह अवश्य ही पूरी होती हैं। ऐसी लोगों की दृढ़-मान्यता है। सावण-भादवो महीने मैं व्रत रखने वाले स्त्री-पुरुष व बच्चे यहां आकर भक्ति-भाव से अपनी आस्था के पुष्प इस सतगुरु के चरणों में अर्पित कर अपने को धन्य मानते हैं। यहां एक छोटा सा शिव-मंदिर भी बना हुआ है। साथ ही एक धर्मशाला प्यार और सरकार द्वारा एक उच्च प्राथमिक विद्यालय भी चलता है। दूर-दूर के श्रद्धालु भक्तगण और तीर्थयात्री भी यहां आकर स्वर्ग- सा सुखद आनंद का अनुभव करते हैं। यहां अब भी मीठे पानी का पाइप लाइन भी बीछ चुकी है बिलाड़ा नगर के अन्य तीर्थ स्थानों में कल्पवृक्ष का भी विशिष्ट स्थान है। पुरातत्व विभाग के कुछ विशेषज्ञ और वनस्पति विज्ञान के विशेष अनुसंधानकर्ता यहां आकर इस वृक्ष के बारे में शोध करने का प्रयास करते हैं। इसकी पत्तियां, छाल और तनों की बनावट आदि पर शोध करके नए तथ्य लोगों की सम्मुख रखने को प्रयत्नशील है। एक तरफ इस वृक्ष का पौराणिक अध्यात्मिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्व है, तो दूसरी तरफ या वृक्ष सदियों से मानव-जाति के उत्थान-पतन और बिलाड़ा नगरी के गौरवशाली अतीत, वर्तमान और भविष्य का दृष्टा है। इस अभी चल खड़े देव- तरू के चरणों में हम और हमारी भावी संताने अपने श्रद्धा और मनौती के महकते पुष्प सदैव अर्पित करते रहेंगे।