सत् पुरुषों ने कहा है – उत्तम साधन : परोपकार। दान दो, तुम्हारे पास जो हो वह श्रद्धापूर्वक दान करो। भक्ति, साधन और सम्पति को परोपकार में लगाने का नाम दान है। इसी का नाम परहित है। पढ़े लिखे हो तो दूसरों को पढ़ाओ। धन ही तो उससे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए सेवा करो। बुद्धि विशेष हो तो भूले भटकों को मार्ग बताओ। तालाब व कुआ खुदवाओ। दवाखाना खोलो। भूखों को अन्न दो, प्यासे को पानी दो, अनपढ़ को पढ़ाओ। पथिक को आश्रम दो। गायों का पालन करो। निराधार को अन्न-वस्त्र देकर आधार बनो। निरुद्यमी को उद्यम दो, विद्यादान करो। जहाँ तक बने सहायता करो। अभिमान छोड़कर जिन भगवान ने तुम्हे शक्ति, साधन, सम्पति प्रदान की है, वे प्राणिमात्र के ह्रदय में बसते हैं। उनकी सेवा से खर्च करके भगवान की सेवा करो और सब को प्रसन्न करो। जितना हो सके, अच्छा काम करो। बुरा काम मत करो। (श्री आई माताजी ने कहा -आंठो परहित मार्ग चालो) तुलसीदासजी ने कहा है कि
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िए, जब लगि घट में प्राण।।