मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसकी सुख, समृद्धि और प्रगति परस्पर सहयोग पर ही निर्भर है। अन्य जीव-जन्तु बिना दूसरों की सहायता एवं जीवन अपने बलबूते पर जी सकते हैं पर मनुष्य के लिए यह सम्भव नहीं है। मनुष्य का बालक कई वर्ष की आयु तक दूसरों की सेवा सहायता पर निर्भर रहता है। यदि उसे यह लालन-पालन न मिले तो जीवित रहना भी सम्भव न हो जबकि दूसरे प्राणी जन्म के बाद थोड़ी बहुत सहायता माता की लेते हैं। मनुष्य की प्रगति का जितना श्रैय उसकी बुद्धि बल को है उससे अधिक श्रैय उसकी सामाजिक प्रवृति को है। यदि मिलजुल कर रहने रहने और एक दूसरे की सहायता करने का भाव घट जाए तो प्रगति का पथ भी अवरुद्ध हो जाता है। कई उल्टी गति अधिक चलने लगे दूसरों की सहायता करने के स्थान पर शोषण की भावनाएं जाग पड़े तो यह संसार नरक बन जाता है और पाप, तापों की, क्लेश कलह की सर्वनाशी अग्नि भड़कने लगती हैं। सामूहिकता की परस्पर उदारता और सहायता की वृत्तियों को सजग रखना- उसके प्रति प्रगाढ़ आस्था का बनाए रखना मानवीय प्रगति एवं विश्व शान्ति की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। मां आईजी ने सामाजिक ढांचा परस्पर सहयोग से सुढृढ़ बनाने पर जोर दिया। माता जी का पवित्र संदेश था कि कि था कि का पवित्र संदेश था कि कि था कि हम आपसी सहयोग व संगठन से ही विकास कर सकते हैं माताजी ने स्पष्ट कहा कि इस हेतु समाज के लोगों की खान-पान बोल-चाल आपसी व्यवहार अच्छा होना चाहिए। आज यह प्रवृत्ति घट रही है, फल स्वरूप मानव जीवन जटिलताएं बढ़ती जा रही हैं और आपसी लड़ाई ईर्ष्या द्वेष बढ़ता जा रहा है। इस स्थिति को बदलने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि सामाजिकता की प्रवृतियों को अधिकाधिक प्रोत्साहन दिया जाय और लोगों को अधिक उदार, शिक्षित, संस्कृति, प्रेमी, संयमी और परमार्थ प्रिय बनने की प्रेरणा दी जाय।