।।समृद्ध सोच और सामाजिक उत्थान(६)।।
समृद्ध सोच का उद्भव अचानक नहीं हो सकता है। जो व्यक्ति स्वयं को बीते कल से बेहतर बनाने का संकल्प लेता हैं उसी की सोच में बदलाव आ सकता है। उसी की सोच श्रेष्ठ और समृद्ध हो सकती है। समृद्ध सोच के लिए व्यक्ति को स्वयं में खो जाने की जरूरत होती है अर्थात जब तक व्यक्ति अपने आपसे बात नहीं करता है तब तक उसकी सोच में सकारात्मकता पूर्ण सुधार नहीं आ सकता है।
कहते है कि ,
“ए इंसान खुद से भी दो घड़ी मिल ले..
वो अच्छा है वो बुरा है,
वह खोटा है वह खरा है…
हर घड़ी दूसरों में अच्छाई -बुराई ढूंढता रहा,
ऐसा कर अब खुद से खुद को भी ढूंढ ले।
समय निकाल और खुद से भी दो घड़ी मिलले..।”
उक्त भावों को चिंतन कर ही हम अपनी सोच को समृद्ध बना सकते है और सामाजिक उत्थान के विराट ध्येय को उसके मुकाम तक पहुंचा सकते है। हम अपने व्यक्तिगत अनुभव से कहते है कि ऐसे बहुत -से लोग है जो स्वयं को सामाजिक सेवार्थी समझते है लेकिन उनकी सोच देखी जाय तो बहुत ही तुच्छ और दकियानूसी है। वे अपने से श्रेष्ठ किसी को समझते ही नहीं है और वे किसी को आगे बढ़ते देखना ही नहीं चाहते है।
ऐसे लोग सदा दूसरों की अनावश्यक आलोचना करते ही रहते है। अपनी जिद्द एवं हठधर्मिता को छोड़ते ही नहीं है। जो व्यक्ति अपनी स्वयं की कारगुज़ारियों और गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश करते है वे जीवन में कदापि यश और कीर्ति नहीं पा सकते है।जीवन में यश और कीर्ति उन्ही को मिलती है जो बड़े एवं उदार मन से ,अपनी सकारात्मक समृद्ध सोच से सदा अपना सर्वश्रेष्ठ कर्तव्यकर्म कर अपना दायित्व निभाता है।
“सरल बनो,
आत्मविश्लेषण कर तब तक विकार खोजते रहो,
जब तक कि चित्त विकार शून्य न हो जाए,
क्रमशः सब हो जायेगा।”
सोच में समृद्धता हो,सोच में विशाल सहृदयता हो,सोच में अद्भुत,अद्वितीय त्याग और अर्पण हो,सोच में सामाजिक सरोकार के भाव हो और सोच में औरों के प्रति दुर्भावना न हो तभी व्यक्ति निष्काम कर्मयोगी बन सामाजिक उत्थान में अपनी महत्ती भूमिका अदा कर सकता है।
आईए आप और हम सभी अपनी सोच को आत्मविश्लेषण की विधा से समृद्ध बनाए और सामाजिक उत्थान में अपना ईमानदारी से फर्ज निभाए।
आप सभी श्रेष्ठ वंदनीय महानुभावों को मेरा सादर वंदन – अभिनंदन सा।🙏🙏
आपका अपना
हीराराम गेहलोत
संपादक
श्री आई ज्योति पत्रिका।