सीरवी समाज की आराध्य देवी श्री आई माताजी है।श्री आई माताजी साक्षात माँ शक्ति अर्थात पार्वती जी का अवतार है।जो गुजरात के अम्बापुर के सन्तानरहित बीका डाबी राजपूत के यहाँ अवतार लिया। उनको बचपन मे जीजी के नाम से पुकारा गया।जीजी माता ने कई ऐसे चमत्कार बताए जिससे स्प्ष्ट हुआ कि-जीजी कोई साधारण कन्या नही बल्कि शक्ति स्वरूपा माँ भगवती का अवतार है।
विक्रमी संवत 1521 को जीजी बिलाड़ा पधारे। बिलाड़ा में जीजी का नाम “श्रीआई माता” पड़ा।सबसे पहले आईमाताजी नगोजी हाम्बड़ के पोल पधारे लेकिन वहाँ उनका उचित आदर सत्कार न मिलने के कारण माताजी वहाँ से जाणोजी राठौड़ की गवाड़ी पधारी।जाणोजी राठौड़) के घर द्वार पर जाकर आईमाता जी ने आवाज दी कि:-“माधो की माँ बाहर आ।”यह आवाज सुनकर जाणोजी राठौड़ की पत्नी बाहर आई ,उन्हें बड़ा अचरज हुआ कि-एक वृद्ध माताजी के श्रीमुख से माधो की आवाज। माधो जाणोजी राठौड़(सीरवी) का इकलौता पुत्र था जो बचपन में खो गया था।उसके कारण जाणोजी राठौड़ और उनकी पत्नी बड़े उदास व दुःखी रहते थे। माधो मात-पिता की आँखों का तारा था तथा बुढ़ापे का एकमात्र सहारा था।जाणोजी राठौड़ की पत्नी ने बूढ़ी व वृद्ध माताजी को अपने घर के भीतर ले गयी। जाणोजी राठौड़ की पत्नी ने माता जी के लिए सामान्य भोजन प्रसाद बनाया और खाना परोसा। श्री आईमाता जी ने जाणोजी राठौड़ और उसकी पत्नी को साथ बैठकर भोजन करने को कहा,तीनो भोजन करने साथ बैठे,माताजी की कृपा से सामान्य भोजन सेवा से मेवा बन गया और उसका स्वाद पांच पकवान से बढ़कर हो गया।जाणोजी राठौड़ की पत्नी ने जैसे ही पहला कौर होठों के लगाया,उसके दुःख के आँसू धाराओं में बहने लगे।यह देख जाणोजी राठौड़ की आँखे भी नम हो गयी और उनका भी गला रुंध गया।जाणोजी की पत्नी ने रोते हुए श्री आई माता जी के रूप में पधारे वृद्ध माताजी से कहा कि-उसके घर पहली बार ऐसा स्वादिष्ट खाना बना,आज यदि उसका इकलौता पुत्र मौजूद होता तो इस अभागिन माँ को कितनी खुशी होती? आज वह भी यह भोजन करता।
श्री आई माताजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से जाणोजी राठौड़ एवं उसकी धर्मपत्नी को बताया कि-“आपका पुत्र जिंदा है तथा जहाँ भी है वह खुश है,उसे मैं ले आऊंगी।आप मेरे बताए नियम का पालन करना।मैं तुम्हे यह कच्चा ग्यारह ताग का धागा दे रही हूँ, जैसे जैसे मैं नियम बताऊं उसकी गांठ लगाना और उसका पालन करना।” जाणोजी राठौड़ की पत्नी ने ऐसा ही किया और उस धागे के ग्यारह गाँठ लगी तब श्री आई माताजी माधो को मध्यप्रदेश के नीमच के पास रामपुरा गांव में राजाजी की चाकरी से ग्यारहवें दिन घर लाये।जाणोजी राठौड़ और उनकी पत्नी का खुशी का कोई ठिकाना नही रहा।उन दोनों ने माताजी का चरण वन्दन किया।माता-पिता का उनके खोए हुए पुत्र के मिलन को देखकर माताजी मोह व ममता के भेदाभेद पर केवल मुस्कराती रही।इस प्रकार श्री आई माता जी की कृपा से जाणोजी राठौड़ और उनकी पत्नी के अंधेरे घर में नया सवेरा ला दिया। माधो के घर लौटने पर श्री आई माताजी ने अपने स्वयं के हाथों से कच्चे धागे पर ग्यारह गाँठ लगाकर उसके दाहिने हाथ पर धागा बाँधा तथा माधो की माँ के गले में ग्यारह गांठो वाला धागा बाँधा। और ये धागा बेल कहलाया। तभी से श्री आई माता जी के भक्त डोराबन्द कहलाए। ये ग्यारह गाँठे ही श्री आई पंथ के ग्यारह नियम बन गए। श्री आई माता जी के सच्चे भक्त इन ग्यारह नियमों की पालना करते है वे बड़े सुखी-सम्पन्न रहते है।उनके घर परिवार में सुख-समृद्धि एव शांति का सुवास होता है।
बिलाड़ा में माधो ने भक्ति व मनोयोग से श्री आई माता जी की खूब सेवा की। श्री आई माता जी ने ही माधो का विवाह बीला हाम्बड़ की सुपुत्री सोढ़ी से कराया। संवत 1530 को माधो जी की पत्नी सोढ़ी(सीरवी) को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।जिसका नाम गोयंद रखा गया।गोयंद होनहार व श्री आई माताजी का परम भक्त था।बचपन में ही घर परिवार में धार्मिक संस्कारों का जो वातावरण था उसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।गोयन्द भी अपने दादा-दादी एवं माता -पिता की तरह श्री आई माता जी का परम भक्त बन गया। आगे जाकर श्री आई माताजी ने ही गोयंददास जी राठौड़ को पाट पर बैठाकर श्री आई पंथ का प्रथम दीवान नियुक्त किया।
संवत 1539 जाणोजी राठौड़ के निधन हो जाने के बाद माधो जी के अंतर्मन में वैराग भाव पूर्णतया जग गया और उन्होंने अपने जीवन को भक्तिमय बना दिया। माधो अब संत माधव जी बन गए।
माधव जी ने श्री आई माताजी से मारवाड़ व मेवाड़ राज्य के भिन्न-भिन्न गाँवो में साक्षात पधारकर दुःखी व पीड़ित लोगों के दुःख-दर्द व कष्ट पीड़ा हरने का करबद्ध निवेदन किया। कहते हैं कि – माधव जी में जगे इस अलौकिक प्रकाश से श्री आई माता जी खूब प्रभावित हुई। श्री आई माता जी शारीरिक रूप से बहुत वृद्ध हो गए थे अतः इतना चलना संभव नहीं था।
श्री आई माताजी ने माधव से कहा कि – एक बैलगाड़ी बनाओ जिसके ऊपर एक मंदिरनुमा आकार हो। माधव जी ने श्री आई माताजी की आज्ञानुसार एक सुंदर,आकर्षक तथा मजबूत बैलगाड़ी का रथ बनाया।
“श्री आईमाता की आज्ञा सु,जो माधव जी ने रथ बनवाया।
धर्म-प्रचार का वही रथ,श्री आई माता जी का भेल कहलाया।।’
श्री आई माता जी इस रथ पर विराज कर माधव जी के साथून स्थानों से होते हुए वापस गए,जिधर वे पधारी थी। श्री आई माताजी के दर्शन करने तथा उनके उपदेशों को सुनने के लिए अधिकाधिक श्रद्धालु आने लगे।श्री आई माता जी भेल रथ पर बिलावास,सोजत, डायलाना होते हुए नारलाई व नाडोल पधारी। नाडोल के पास गाँव कोटड़ी पधारी जहाँ एक गोसाई बाबा ने श्री आई माताजी का भव्य स्वागत-सत्कार किया और उन्होंने अपने दो परम शिष्य रूपगिरी और केशरगिरी को आज्ञा देकर उनका जीवन धन्य करने को कहा। श्री आई माता जी बाबा गाँव,बिठूड़ा,कोसेलाव,चाणोद आदि गाँवो में पधारी और सर्व समाज के लोगों को उपदेश दिया।
श्री आई माता जी बैलगाड़ी के रथ पर विराजकर बहुत-से गाँवो का भ्रमण किया और लोगों को पाना आशीर्वाद दिया।यह बैलगाड़ी श्री आईजी का रथ(भेल)कहलाया,जिसे आज हम सीरवी बंधुजन-बहने “श्री आई माता जी री भेल” कहते है,गोडवाड़ क्षेत्र में इसे “माताजी री वैल” कहा जाता है।
वही परम्परा आज भी चल रही है।श्री आईमाता जी की भेल के प्रति श्री आई माता के भक्तों ने गहरी आस्था व श्रद्धा भक्ति है।आज भी गाँवो में “श्री आईमाता की भेल” का प्राचीन परम्परा व रीति-रिवाज से स्वागत-सत्कार किया जाता है।सीरवी लोग श्री आई माताजी के धर्म रथ(भेल) के स्वागत-सत्कार की रस्म को “वैल रो वधावो” कहते है।
(शेष अगले अंक में..)
द्वारा:- हीराराम गेहलोत
संपादक:- श्री आई ज्योति पत्रिका।
प्रवक्ता :- सीरवी समाज सम्पूर्ण भारत डाॅट काॅम
श्री आई माता जी भेल (धर्म रथ) :-एक युगान्तकारी पहल।।(१)
