बदलाव बनाम संस्कारों को तिलांजलि
कहाँ से बात प्रारम्भ करें। प्रातः उठते ही दादी का दही घमोड़ने का कार्य – उसी से प्रारम्भ होती दिनचर्या – मक्खन मिश्रित मठा पीने से आत्मा तक तृप्त हो जाती । माँ द्वारा घर की घट्टी पर अनाज पीसते वक्त गाई गई स्तुति भजन आज भी जेहन में है। छाछ लेने के लिये आने वालो का क्रम दो घण्टे तक चलता। गर्मी की छुट्टियों में खाने के मजे ही और थे। प्याज का चम्मच बनाकर उसमें छाछ भर पीना व साथ में खाना आज के पकवानों से कहीं ज्यादा स्वादिष्ट था। दोपहर में गाँव से बाहर बने गट्टे पीपल या वटवृक्ष के पेड़ के चारों ओर गोलाकार चबूतरा पर जाकर खेलना तथा साथ ही नीम की पकी हुई निमोली व पीपल की पकी के फास्टफुड हुई डोडी एल खाना लू के थपेड़े तथा तेज हवायें भी उस गट्टे पर शकून ला देती थी। दोपहर में घाणी जौ का सीका हुआ तथा मुंगडा सिका हुआ चना साथ में गुड़ बहुत ही स्वादिष्ट लगता था। रात्रि में खाने के बाद नमक के पानी में गले हुये केर खाना तथा सुपारी की जगह आम की गुठली को अधजली राख में सेककर उसका अंदर का फल खाना बहुत ही स्वादिष्ट था। सिकी हुई गुठली खाने के बाद उस पर पानी पीना बहुत ही मीठा लगता लगता था। रात्रि में सोने से पूर्व मकान की छत पर अपने-अपने बिस्तर पहले से ही डाल देते थे यानी जगह का रिजर्वेशन कर देते थे। एक माँ के 5 से 10 तक बच्चे संयुक्त परिवार में पारम्पारिक व्यवस्था में पल जाते थे।
समय बदला – खान पान बदला, पहनावा बदला, रहने जा ढंग बदला, उठने सोने का समय बदला। टी.वी. तथा मोबाइल फोन ने सबको एकाकी कर दिया। परिवार सिमट कर 1 या दो बच्चो तक हो गया। पुरातन संस्कृति, वार-त्यौहार बहुत पीछे छुट गये। संस्कारों का अभाव हर कहीं देखने को मिलता हैं । गाँवों से आधुनिक शिक्षा तथा वर्तमान की सुविधाओं के अभाव के चलते शहरों की तरफ पलायन होने लगा। शहरों के खान पान में आमूलचूल परिवर्तन आया । हफ्ते में कम से कम दो शाम को खाना खाने के लिये बाहर जाना आवश्यक हो गया। वैसे भी जन्मदिन, विवाह की वर्षगाँठ नया ट्रेंड पर बाहर खाना रिवाज बन गया। आइये इसमें समांजस्य का प्रयास करें। चिर पुरातन-नव नूतन को समाहित करके हमारी संस्कृति तथा संस्कारों को बचाये। अविलम्ब गहन चिंतन करके आगे बढ़े।
मनोहर सीरवी सुपुत्र श्री रतनलाल जी राठौड़ (मैसूर जनासनी)
पूर्व सम्पादक : सीरवी समाज सम्पूर्ण भारत डॉट कॉम