श्री आईमाता जी के धर्म रथ भैल के प्रति हमारी अगाध आस्था और श्रद्धा भक्ति है।गाँव में श्री आईमाता जी की भैल का आना हर किसी को सुकूनदायी लगता है और अंतर्मन में यह विश्वास पैदा करता है कि-श्री आईमाता जी हमारा उद्धार करने के लिए स्वयं पधारे है। श्री आईपंथ का हर अनुयायी धर्मरथ में सूक्ष्म रूप में विराजमान श्री आईमाता जी के दर्शन कर अपने आप को धन्य मानता है। वह अपने व अपने परिवार के संम्बधियो की जात बड़ी खुशी से कराकर माँ श्री आई जी के वेळ (बेल) लेता है और अपने व अपने परिवार जनों में पुरुष के जीमणे हाथ और नारी के गले में बांधता है। यह हमारी धार्मिक आस्था और श्री आईमाता जी के प्रति गहरी श्रद्धा भक्ति है। हम सब श्री आईमाता के ऐसे सभी श्रेष्ठ उपासकों व सच्चे भक्तों को नमन करते है और हम उनसे यह भी अपेक्षा रखते है कि वे श्री आईपंथ के नियमों की पालना भी पूर्ण ईमानदारी व निष्ठा से करे। जीवन के उद्धार के लिए श्रेष्ठ मानक मूल्यों के अनुरूप जीवन जीना जरूरी होता है।हमने गत आलेख में श्री आईपंथ के प्रथम नियम के बारे में जाना,अब हम सभी श्री आईपंथ के दूसरे नियम-“दूजो तो मद-माँस छुड़ाई।” की पालना पर जोर देवें।श्री आईमाता जी ने बताया था कि-“जीवन उन्ही का सुखदायी होता है जो शुद्ध शाकाहार करते है और माँस-मदिरा से सदा दूर रहते है।”
सीरवी समाज के महान साहित्यकार और श्री आईमाता जी के भक्त हरिराम जी चोयल मैसूर ने अपनी पुस्तक”भारत का आध्यात्म चिंतन-आईपंथ।” में बहुत ही प्रेरणादायी सुंदर संदेश लिखा है कि:-
“दूजो नियम मद-माँस छुड़ाई,
शुद्ध आहार की बात बताई।
मांसाहार तमोगुण लाई,
शाकाहार से सतो गुण आई।।
जीव हिंसा कर जो मांस खाते,
अपने पेट को शमसान बनाते।
वे निर्दयी पापी निष्ठुर कहलाते,
पवित्र आचरण पर दाग लगाते।।”
उक्त पद्यों के मर्म को समझे और तामसिक खानपान से सदा दूर रहे। अपने पवित्र आचरण पर कोई दाग लगने नहीं देवें।
शास्त्रों में कहा गया है कि-“जैसा खावे अन्न,वैसा होवे मन।”
जो व्यक्ति तामसिक खानपान का आदी है उसका आचरण व व्यवहार कदापि श्रेष्ठ नहीं हो सकता है।मद-माँस के सेवन करने वाले व्यक्ति की बुद्धि और विवेक पर ग्रहण लग जाता है। जिस व्यक्ति की बुद्धि व विवेक पर ग्रहण लग जाय या नष्ट हो जाय तो उससे श्रेष्ठ सद्कर्मो की अपेक्षा कदापि नही की जा सकती है।वह दिनोदिन नैतिक मूल्यों से पतित होता जाता है। आजकल की हमारी युवा पीढ़ी संस्कार विहीन होती जा रही है उसका कारण उनका तामसिक खानपान है। समाज में अब बहुत कुछ उल्टापुल्टा शुरू होने लगा है। यह बहुत चिंता व चिंतन का विषय है।बड़े-बुजुर्गों और युवाओं के बीच घटती मर्यादाएं एवं सीमाएं । जहाँ मर्यादाएं एवं सीमाएं नही है वहाँ श्रेष्ठ आचरण व व्यवहार की उम्मीदें करना मूर्खता है।यह सब तामसिक खानपान का दुष्परिणाम है।
आज की युवापीढ़ी से हमारा विनम्रतापूर्वक निवेदन है कि-वे श्री आईपंथ के दूसरे नियम की पालना करे और तामसिक खानपान से सदा अपने को दूर रखें। वे किसी प्रकार का नशा पता न करे।अपने जीवन को सुख-समृद्धि से सुवासित करने के लिए मांस-मदिरा की गंदी आदत से दूर रहे और किसी प्रकार के नशे पत्ते से अपने आपको दूर रखें। श्री आईमाता जी वेळ(बेल) नियमित बाँधे और उन नियमों को आत्मसात कर जीवन जिए।
हम तो इतना ही कहते है कि:-
“तामसिक खानपान ,नशा नाश की जड़ है भाई,
जो सुख चावों जीव का,तो छोड़ देने में ही है भलाई।।”
मैंने तो बचपन में ही संकल्प लिया कि-“जीवन में किसी प्रकार का तामसिक खानपान और नशा नही करूँगा और श्री आईपंथ के दूसरे नियम की दृढ़ता से पालना करूँगा। आज उसी दृढ़ इच्छाशक्ति व संकल्पवादी सोच से जीवन यापन कर रहा हूँ।”
आइये आप भी हमारी तरह श्री आईपंथ के दूसरे नियम को अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाए और अपने जीवन को सुखदायी व सुकूनदायी बनाए।
मुझे आप सभी पर अगाध विश्वास है कि आप श्री आईपंथ के दूसरे नियम की पालना पूर्ण ईमानदारी,सच्चाई और दृढ़ इच्छाशक्ति से करेंगे।
आप सभी समाजी बंधुजन-बहनों के उज्ज्वल व निरोगमय जीवन की मंगलमयी शुभकामनायें और सभी को मेरा सादर वन्दन-अभिनंदन सा।
🙏🙏
आपका अपना
हीराराम गेहलोत
संपादक
श्री आई ज्योति पत्रिका।
श्री आईमाता जी भेल(धर्म रथ):-एक युगान्तकारी पहल(५)
