अधर्म का नाश एवं धर्म की स्थापना हेतु जगत जननी मां अम्बे वि.स. 1472 भादवी सुदी बीज के दिन अम्बापुर मे अम्बे भक्त व शिव भक्त बीकाजी के बगीचे में बाल कन्या के रुप मे अवतरित हुए । उनके स्वागत के लिए सारा प्राकृतिक सोन्दर्य निखरने लगा तथा उस कन्या का नाम जीजी रखा ।
संवत 1440 के आस पास डाबी सांवतसिंह के परिवार मे एक करामाती पुरुष का जन्म हुआ जिसका नाम बीका रखा गया । जब बीका की आयु विवाह योग्य हुई तो उसके माता पिता ने सुयोग्य कन्या के साथ बीका का विवाह भी कर दिया । दोनों अम्बाजी (दुर्गा) के परम भक्त थे ।
बीकाजी व उनकी धर्मपत्नी द्वारा अम्बाजी की भक्तियुक्त अरदास तथा नैतिक जीवन जीने के बावजुद उन्हे सन्तानसुख की प्राप्ति नहीं हुई । अम्बापुर में अम्बाजी की स्थापना करके इस दम्पति ने उनका जीवन लोक सेवा में समर्पित कर दिया । उनके चित्त में सन्तानहीनता की टीस कभी कभार सांसारिक दुख का अहसास कराती थी । एक दिन बीका डाबी बाबा रामदेव के पिता श्री अजमलजी की तरह कुछ दुनियावी लोगों के अपशकुन की सोच के शिकार हो गये । उन्हें बहुत कष्ट हुआ । मां अम्बा के चरणों मे गिरकर रोने लगें । रोते रोते आखिर उनकी आंख लग गयी । अम्बाजी ने बीकाजी को साक्षात् दर्शन दिए । बीकाजी बहुत प्रशन्न हुए । वे मां जगदम्बा के चरणों में गिरकर विनती करने लगे । अम्बाजी ने बीकाजी से कहा ‘बीका मैं तेरी भक्ति से अति प्रसन्न हूँ । आज तू जो मांगेगा, वो मैं तुझे दूंगी । तू नि:संकोच होकर मांग ।’ मां अम्बा के वचन सुनकर बीकाजी हाथ जोड़कर अम्बाजी से अरदास करने लगे-‘हे! मां मुझ पर आप इतनी कृपा कर दो कि आप मेरे घर पर ही वास करो जिससे हर पल मैं आपकी सेवा भक्ति करता रहूं ।’ बीकाजी की भक्ति की युक्ति देखकर अम्बाजी ने वरदान दिया – ‘बीका ! तेरी यह इच्छा अवश्य ही पुरी होगी । मैं तेरे घर कन्या के रुप में आऊंगी ।’अम्बाजी के इन वचनों में देवी के रुप में स्वयं के अवतरित होने का शुभ संकेत था ।
सीरवी समाज धर्म व संस्कृति में भगवती आईजी के अवतरण के बारे मे लिखा हे – साध्वी परमतपस्विनी, लोककल्याणी, मां अम्बा की भक्तिन, ज्योतिस्वरुपा श्री आईजी का जन्म विक्रम संवत 1472 में गुजरात के दाता रियासतान्तर्गत अम्बापुर नामक स्थान पर नि:सन्तान बीकाजी डाबी के घर अम्बा की अनेक वर्षो की कठिन तपस्या के फलस्वरुप हुआ था ।
भगवती श्री आईजी के अवतरण के समय बीकाजी डाबी को अलौकिक साक्षात अनुभव हुए थे । उनके घर में कुंकुंम पगल्या मढे़ हुए थे । लोगों को श्री आईजी के दर्शन मात्र से ही समाधान मिलता था । श्री आईजी के बचपन का नाम जीजी था । देवी के रूप में जीजी को पाकर बीका धन्य हो गया । जीजी को प्राणी मात्र से ही अपार प्रेम था । जिस पर उनकी नजर पड़ी वह भी उनका तथा जिसकी नजर उन पर पड़ी वह भी उनका खास बन्दा बन गया । किसानों, गरीबों, असहायों, उपेक्षितों के प्रति उनके खास कृपा भा थे ।
अम्बापुर में एक बार एक सांड बेकाबू हो गया । उसने अनेक लोगों को घायल कर दिया । जब जीजी ने उस सांड के दोनों सिंग पकड़े तब वह निढाल होकर बैठ गया तथा जीजी बाई के तलवे चाटने लगा । इसी प्रकार एक बार अम्बाजी के मंदिर में एक विषैला नाग आ गया । सभी लोग भयभीत हो गये । जब जीजी को यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने उस भंयकर सांप को पकड़कर गांव से दूर जंगल में छोड़ दिया । इस प्रकार लोगों को जीजी में शक्ति रूप के दर्शन होते थे ।
जीजी कभी जवान, कभी बालिका, तो कभी बूढी बन जाया करती थी । उनमें किसी एक ही अवस्था का स्थायित्व नहीं था ।
जीजी बचपन से ही समदृष्टि की मिसाल थी । अछूत समझी जाने वाली जातियों के घर जाकर वह निसंकोच अन्नजल ग्रहण किया करती थी । एक बार उसकी कुछ सहेलियों द्वारा उनके इस व्यवहार से नफरत करने पर जीजी ने उन्हें प्राणी मात्र से मोहब्बत करने की नसीहत दी । उन्होंने उनकी सहेलियों को बताया कि ईश्वर सबसे प्रेम रखता है । वह किसी की जाति, पद, गरिमा, लिंग, देश आदि की परवाह नहीं करते हैं । ईश्वर सबसे बड़ा रहमदिल वाला हैं । जो मालिक की श्रद्धापूर्वक इबादत करता है वह किसी का मोहताज नहीं होता है । उसकी रजा में राजी रहना ही जीवन की असली तरक्की है । जीजी कहा करती थी कि ईश्वर एक है । ज्योति जैसा प्रकाशमान उसका स्वरूप है । ईश्वर बेदम को दमदार बना सकते हैं । वे परम दयालु है ।
जीजी के विचारों में लोगों को हकीकत के दर्शन होने लगे । जीजी का मानना था की भोंपे, तांत्रिक, धन-लोलुप पुजारी, धर्म के शोषक है। हमें इन लोगों के चुंगल में नही फंसना चाहिए । एक तांत्रिक को जीजी के ऐसे विचार ठीक नहीं लगे क्योंकि अम्बापुर तथा आस-पास में उसकी मांग कम होने लगी । वह तिलमिला उठा । उसने जीजी पर अनेक चेटक तथा त्रोटक किए लेकिन सब कुछ व्यर्थ । अंत में उस तांत्रिक ने जीजी के निवास पर आकर अपनी मैली-विद्या के प्रर्दशन की ठानी । वह अपने झोली-झंडा लेकर जीजी के घर आ धमका । जीजी को देखते ही उसके गरुर का नामोनिशान मिट गया । वह बिना बहस के जीजी के चरणों में पड़ गया । जीजी ने उसको क्षमा करके नयी ज़िन्दगी जीने का उपदेश दिया ।। जीजी का अधिकतर वक्त ईश्वर के ध्यान साधना में गुजरता था । उनकी संकल्प शक्ति अद्वितीय थी । उनका रूप शुभ, मंगलकारी तथा अति सुन्दर था ।
‘मांडु की बादशाहत की नींव डालने वाला दिलावर खां गौरी था जिसको दिल्ली के बादशाह फिरोज तुगलक के बेटे नासीरुद्दीन मुहम्मद शाह ने विक्रम संवत 1448 मे मालवा का सूबेदार बनाया था । दिल्ली की बादशाहत कमजोर होने पर वह खुद मांडू का बादशाह बन बैठा । दिलावर खां के बाद उसका बेटा होशंग बादशाह बना और होशंग के बाद होशंग का लड़का गजनी खां बादशाह बना । गजनी खां को धोखे से मरवाकर महमूद खिलजी मांडू का बादशाह बना । महमूद खिलजी को महाराणा कुंभा ने भी शिकस्त दी थी । महमूद खिलजी विक्रम संवत 1463 में मांडू (मांडल) का बादशाह बना था ।’
जीजी बाई की सुंदरता की चर्चा आखिर कार मांडू बादशाह महमूद खिलजी के पास पहुंची । अंबापुर मांडू देशान्तर्गत ही था । महमूद खिलजी कामुक तो था ही, साथ ही हिंदुओं के नैतिक पतन के लिए भी प्रयासरत था । उसने उसकी कनीज को जीजी की सुंदरता की हकीकत जानने के लिए अंबापुर भेजा । कनीज द्वारा हकीकत की जानकारी प्राप्त करने के बाद बादशाह ने बिका डाबी को दरबार-ए-खास में बुलाकर जीजी के साथ उसकी शादी करने का हुक्म दिया । बीका भयभीत हो गया लेकिन जान बचाने के लिए बीका को हा करना ही था । बीका घर लौटकर बेहाल हो गया । उन्होंने उनकी बेबसी का बयान उनकी धर्मपत्नी से किया । बीका के आत्महत्या करने या बादशाह को मारने के लिए क्रोध भरे संकल्प जब जीजी ने सुने तब जीजी ने बीकाजी से कहा की बादशाह के साथ उसकी शादी की हामी भर दी । जीजी ने उसके पिताजी से कहा कि बादशाह के पाप का घड़ा भर चुका है, अब उसके फूटने का वक्त आ गया है, आदि देवी से महिषासुर देत्य शादी करना चाहता था । महिषासुर द्वारा माताजी की अपार शक्ति को मंजूर नहीं करने के कारण मौत का शिकार होना पड़ा । जीजी ने उनके पिताजी को याद दिलाया कि उनका अवतार दुष्टों के दलन के लिए ही तो हुआ है । जीजी ने महमूद खिलजी को सहर्ष शादी प्रस्ताव भिजवा दिया । निकाह की निश्चित तिथि को खिलजी असंख्य बारातियों के साथ अम्बापुर आ पहुंचा ।
किंवदन्तियों एवं जनश्रुतियों के आधार से ऐसा कहा जाता है कि जीजी ने एक छप्परनुमा झोपड़ी से असंख्य बारातियों को इच्छित स्वादिष्ट खान पान का आनंदाभास करवाया । हजार हाथों वाले सृष्टि संचालन की शक्ति अलौकिक तथा अपरिमित होती हैं । जीजी की इस रहस्यमयी शक्ति के फलस्वरुप सहज समर्थ व्यवस्था होने की चमत्कृत घटना को सुनकर खुद महमूद खिलजी उस झोपड़ी के दरवाजे के समक्ष गया । महमूद खिलजी को जीजी के स्थान पर मां जगदंबा के साक्षात दर्शन हुए । भयभीत महमूद खिलजी मां के चरणों में क्षमा याचना के लिए गिर गया । उसने कुछ समय बाद जगदम्बा के स्थान पर जीजी को देखा । वह शर्म व ग्लानि से जीजी के सामने झुक गया । वह जीजी का अनुयायी बन गया । ‘महमूद खिलजी ने अंबापुर में अम्बाजी का भव्य मंदिर बनवाया तथा मंदिर की व्यवस्था आदि के लिए जमीन भेंट में
एक दिन सवेरे जीजी माता ने अपनी जरूरत की चीजें धार्मिक पुस्तकें एक पोठिये ( बोल ) पर लादकर अंबापुर से बीलपुर आने के लिए प्रस्थान किया रास्ते चलते हुए जीजी माता कभी अपना वृध्द रूप धारण कर लेती , कभी कन्या का रूप धारण कर लेती इसी प्रकार अपने पोठिये को कभी बूढ़ा बैल बना देते कभी छोटा बछड़ा । इस प्रकार रूप बदलते हुए सर्वप्रथम मेवाड़ राज्य के गांव नारलाई ( जो अरावली पर्वतमाला की तलहटी में बसा हुआ है । ) जा पहुंचे । ग्राम नारलाई में पहाङी के ऊपर एक बहुत पुराना जैकल जी ( महादेव ) का मंदिर बना हुआ था पुरानी दंत कथाओं के अनुसार नारलाई गांव नारद मुनि द्वारा बसाया जाना बतलाते है । और ऊपर पहाङी पर जेकलीजी ( महादेव ) का जो पुराना मंदिर है उस मंदिर में औरतों का जाना मना है । ऐसी स्थिति में जीजी माता ने अपने बेल को पहाड़ की तलहटी में एक खुंटे से बांधकर पहाड़ी पर बने जैकलजी के मंदिर में पधारी । वहां के पुजारी ने जब भी जीजी को अलौकिक रूप में देखा तो स्वत: ही नतमस्तक हो गया और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा कि हे मातेश्वरी इस मंदिर में नारी प्रवेश निषेध है आप मुझे कोई देवी प्रतीत हो रही है और यहां रूकना चाहे तो मंदिर के पास एक पहाड़ी चट्टान है उसे हटाकर गुफा बनाकर उसमें चलती हवा में ज्योति जलाकर रह सकते हैं । जो मंदिर के पास ही हैं ।
पुजारीजी की बात जीजी माता को उचित लगे। उन्होंने अपने हाथ में पकङी छड़ी ( सोहन चिटिया ) सामने वाली चटटान के लगाई तो चटटान अपने आप सरकी और एक गुफा बन गई , उसी गुफा में जीजी माता ने अपने हाथ से एक ज्योत जलाई और उस गुफा में कायम की । हवा तेज होने के बावजूद भी ज्योति जलती रही । जलती ज्योति के ऊपर काजल न आकर केसर पङने लगा । यह चमत्कार देख पुजारी को पक्का विश्वास हो गया कि यह कोई साधारण नारी नही हे । साक्षात नवदुर्गा का रुप हे । फिर पुजारी जीजी माता के चरणों मे गिर कर निवेदन करने लगा कि हे मां अब आप इसी गुफा मे विराजमान होकर हमें दर्शनों से कृतार्थ करें । जीजी माता उस गुफा मे तपस्या करने लगे । लोगों को ज्यों ज्यों इस बात की खबर मिलती तो भारी संख्या मे जीजी के दर्शन करने आने लगे । रात दिन मेला भरा रहता । जीजी माता लोगों को धार्मिक उपदेश देते । ओर दीन दुखियों का दुख दुर करते । एक दिन पुजारी जी ने जीजी माता से निवेदन किया की हे माहेश्वरी आपका क्या धर्म व नियम हे , कृपया कर हमें बतावे । पुजारी जी की श्रध्दा देख जीजी माता ने कहा पुजारी जी ‘ जोत केसर मेरा रुप हे इसे पहले आप आसापुरी धुम से पुजा करना तथा सदा व्रत मीठा भोजन का प्रथम कांसा ( भोग ) लगाना । यही मेरा धर्म व नियम हे । इतनी बात सुन पुजारी जी नतमस्तक हुये ।
जिस स्थान पर पहाङ की तलहटी मे जीजी माता ने अपने बेल को बांधा था। उस खुंटे का नाम खुटिया बाबजी रखा वो खुंटा आज भी पूजा जाता है जो कि नारलाई में सीरवी जाति के पङियार गोत्र की गवाड़ी में मौजूद हैं । आई भक्त डोराबन्द आज भी उस खुंटे की पूजा करते हैं । बच्चों के झङोले उतारते हैं और शादी के अवसर पर खुटिंया बाबजी की जात देते हैं । पहाङी पर बनी गुफा में मंदिर बना दिया गया । जहां पर आज तक अखंड ज्योति जलती हैं । लोगों का आज भी तीर्थ स्थल बना हुआ है अखंड ज्योति पर केसर पड़ता है ।
जीजी माता को तो मारवाड़ में बीलपुर आना था तो कुछ समय नारलाई में रहने के बाद अपने पोटियो पर सामान लादकर मारवाड़ के लिए प्रस्थान किया नारलाई से रवाना होकर आगे चलते हुए जीजी माता एक दिन भरी दोपहरी में गांव डायलाणा के पास पहुंचे धूप तेज थी कुछ थकावट महसूस कर थोड़ा विश्राम करने का विचार किया लेकिन आस-पास नहीं छायादार पेड़ नजर नहीं आया । पास ही एक खेत में किसान हल चला रहे थे । यह खेत डायलाना गांव से पूर्व दिशा में साधारण नामक बेरे का था । जीजी माता वृद्ध जर्जर रूप धारण कर उन किसानों के पास पहुंचे और बड़े प्रेम से कहा भाइयों मैं वृद्ध हूं और काफी थक गई हूं । थोड़ा विश्राम करना चाहती हूं । मेरे लिए थोड़ी छाया कर दो तो मैं आराम करूं । और मेरा यह बुड्ढा बेल प्यासा है इसे भी कहीं से लाकर थोड़ा पानी पिला दो । जीजी माता की बात सुन किसानों ने सोचा बुढ़िया है बेचारी थकी मांदी हैं । इस पर किसानों ने कहा कि इस वर्ष वर्षा नहीं होने से आसपास पानी सूख गया है । भला तुम्हारे बैल को पानी कहां से पिलावे । पास में जो नदी है वह भी सूखी पड़ी है । किसानों की बात सुनकर जीजी माता ने कहा भाइयों मुझे उस नदी में एक खादरा ( खड्डा ) पानी से भरा दिखाई देता है । जरा वहां से पानी पिला दो । किसानों ने कहा बुढ़िया तुम्हें दिखाई कम पड़ता है यहां पर तो आस पास पानी नहीं है । ज्यादा कहने पर दो किसान नदी पर जाकर क्या देखते हैं कि नदी के बीच एक खड्डा स्वच्छ जल से भरा है किसानों को आश्चर्य हुआ उन्होंने सोचा कि यह बुङिया कोई जादूगरनी यां प्रेतनी है यह सोचकर बैल को पानी तथा जीजी माता के लिए अपना हल खड़ा कर उस पर घास डाल कर छाया कर दी । जिस हल को खड़ा किया था उसमें जुए की सिवल राईण की लकड़ी थी । जीजी माता ने अपने बैल को बांधकर उस हल से बनाई छाया में विश्राम करने हेतु सो गई । जब शाम हुई तो किसान अपने घरों को जाने लगे , तब जीजी माता से कहा कि तुम गांव में चलना चाहो तो चलो यहां रातभर अकेली कैसी रहोगी । इस पर जीजी माता ने कहा कि भाइयों तुम जाओ मैं बुढी यही रात बिता दूंगी । इस पर किसान चले गए । सुबह जब किसानो ने गांव वालों को बताया कि एक जादूगरनी बुढ़िया हमारे खेत में रात को रही थी । उसने हमें नदी में पानी बताया था । यह सुन गांव वाले उत्सुकता से दौड़े-दौड़े साधारण बेरे के खेत में पहुंचे । लेकिन जीजी माता वहां से आगे प्रस्थान कर चुकी थी । गांव वालों ने वहां क्या देखा की जिस जगह हल में छाया की थी । उसी स्थान पर एक छायादार बड़ का पेड़ खड़ा है और उस बङ के पेड़ पर एक राईण का पेड़ खड़ा है । लोग अचंभित हुए और खूब पछताये कि गांव में आई देवी को पहचाने बिना रोक नहीं । लोग पीछे भी भागे लेकिन जीजी माता उन्हें नहीं मिली । जिस हल को खड़ा किया था वह बङ की लकड़ी का बना हुआ था और जुऐ राईण की लकड़ी की सिंवल लगी थी ।
जीजी माता द्वारा प्रगट किया हुआ बड़ का वृक्ष आज भी डायलाना गांव के पूर्व में मौजूद हैं । गांव वालों ने उस बङ वृक्ष के नीचे जीजी माता का मंदिर बनवा दिया है जो आज तक विद्यमान है । वहां पर अखंड ज्योति जलती है और ज्योति पर केसर पड़ता है । हजारों लोग आज भी दर्शनार्थ आते हैं । बच्चे के झड़ोंले उतारते हैं , विवाह पर जात दी जाती हैं । आज भी वही पर पर्चा हे । लोगों की मनोकामना पूर्ण होती है जो सच्चे मन से भक्ति करते हैं जीजी माता आज भी उनके साथ है ! उस बङ का नाम जीजीबङ हैं।
एक बार वर्षा होने पर आई माता ने माधव से कहा की वर्षा हो गई है जाकर खेतों में बुवाई करो । थोड़ी ज्वार मेरे बैल के चारे के लिए भी बो देना । तुम अपने आदमियों को हल लेकर खेत में जावों । मैं तुम्हारे लिए दोपहरी का खाना लेकर आ जाऊंगी । आई माता की बात सुनकर माधव जी 15-20 आदमियों को हलों के साथ लेकर बीलपुर गांव के दक्षिण में ( जहा आजकल बेरा बङा अरट है ) खेत में हल जोतने चले गये । दोपहर में आई माता एक छोटी सी टोकरी में रोटियां ओर एक छोटे बर्तन में पानी लेकर खेत में गये । खेत मे मेङ पर एक पेड़ की छाया में बैठकर सबको आवाज दी की सब आकर दोपहरी करलो । सब लोग हल छोड़कर आई माता के पास आकर बैठ गए । इस पर माधवजी ने कहा कि हे मां आप इस छोटी टोकरी में एक आदमी के लिए रोटियां लाई भला 15-20 आदमी को क्या खिलाओगी । इस पर आई माता ने कहा तुम सब बैठो मैं तुम्हें दोपहरी कराती हूं तब सब आदमी बैठ गए । आई माता ने सबको टोकरी से रोटियां निकाल कर खिलाती रही । सब ने खूब आराम से पेट भर भोजन किया । यह देखकर सब आदमी हैरान रह गए और आई माता के चरणों में गिरकर वंदना करने लगे । शाम को सब अपने-अपने घर आ गये ।
मारवाड़ जंक्शन (खारची) से करीबन 22 किलोमीटर पूर्व दिशा में स्थित एक गांव है भैसाना । इस गांव में भगवती श्री आईजी पधारी गांव से बाहर तालाब के किनारे अपने पोठिये के साथ पहुंचे । इस गांव के ग्वाले अपनी मवेशी को दूसरे लोगों के खेतों में लहलहाती फसलों में जानबूझकर छोड़ा करते थे । फसलों के नुकसान की ना तो यह लोग परवाह करते थे ना ही नुकसान की भरपाई करते थे । सीरवी किसान इनके आतंक से बहुत दुखी थे ।
जीजी को संयोग से इस गांव के ग्वालों का क्रुर तथा लड़ाकू प्रवृती का मुखिया दिखा । वह लोगों को डरा धमका रहा था । एक बेसहारा बुढ़िया ने ग्वाले से कहा कि वह उस गरीब बेवा के खेत में मवेशी को डाल कर खड़ी फसल को क्यों बर्बाद कर रहा है । ग्वाला उस बुढिया को ही डांटने लगा । उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसा होता देख जीजी माता को सहन नहीं हुआ । माताजी ने उस ग्वाले को उसकी मवेशी नियंत्रण में रखने की नसीहत दी । माताजी द्वारा उस बेसहारा बुढिया का प्रक्ष लेने के कारण व क्रोधी ग्वाला माताजी से गाली-गलौज करने लगा । उसने बेकाबू होकर माताजी पर फेंकने के लिए भाटे (पत्थर) ढूंढने लगा । उस समय उसकी सारी भैसें तालाब में जलाचरण कर रही थी । माताजी ने उसको कहा कि तुझे पत्थर चाहिए तो तालाब में बहुत सारे काले पत्थर है । जब उसने तालाब की तरफ देखा तब पाया कि उसकी सभी भैसे पत्थर बन चुकी थी । उसका गरूर उतर गया । ‘जैसी करणी वैसी भरनी’ । वह माताजी के चरणों में गिर गया । माताजी ने कहा कि गरुर तथा क्रोध करने वाले खुदगर्ज लोगों की यही हालत होती है । भैसों की जीवात्माएं मुक्त हो गई । यहां के लोगों ने माताजी का स्वागत किया तथा उनके सानिध्य का पूरा फायदा उठाया । माताजी ने यहां लंबे समय तक तपस्या की । यहां पर माताजी के हाथ की झोपड़ी सीरवियों की गवाड़ी में बनी हुई है । इस गांव में भगवती श्री आईजी का भव्य तथा आधुनिक सुविधाओं युक्त बडेर (मंदिर) बना हुआ है ।
सोजत से भगवती श्री आईजी ने अपने पोठीये को लेकर बिलपुर (बिलाड़ा) हेतू प्रस्थान किया । सेहवाज तथा बगडी मार्ग पर एक प्याऊ बनी हुई थी । माताजी का पोठिया उस प्याऊ के ठिक सामने एक पेड़ की छाया मे आराम फरमाने लगा । माताजी भी प्याऊ मे बेठ गए । एक मालिन बगड़ी नगर की तरफ से सब्जी का ओड़ा लेकर आ रही थी जिसमें बथुआ,पालक,चंदलौई,गाजर आदि थी । जीजी बाई ने सारी सब्जी एक सोने के टके में खरीदकर नन्दी (पोठिये) को खिला दी । जीजी ने उस मालिन को सलाह दी कि उसकी उस दिन की मजदूरी हो गई अत: घर जाकर ईश्वर का ध्यान चितंन करना । मालिन ने माताजी के सामने हां कर दी । दोपहर के बाद लालची मालिन जीजी की सलाह की परवाह न करते हुए इत्तेफाक से जीजी ने पुन: रास्ते मे मिल गई । जीजी ने उसे सवेरे उनके द्वारा दी गई सलाह की याद दिलाई । जीजी ने मालिन से कहा कि जो इन्सान ईश्वर लोभ को छोड़कर धन लोभ में लगा रहता है, वह न तो माया प्राप्त कर सकता है ओर न ही राम । इसलिए कहा गया है-’दुविधा में दोनो गए, माया मिली न राम ।’
वर्षो बाद सेहवाज के मालियों को जीजी की नसीहत की हकीकत समझ में आई । सेहवाज गाँव के माली जाति के लोग श्री आईजी के अनुयायी बन गए । उन्होंने सेहवाज में बडेर (श्री आईजी का मन्दिर) का निर्माण करवाया तथा जहाँ पर नन्दी (पोठिया) बेठा था, वहा पर भी एक छोटा सा मन्दिर बनाया गया हैं।