श्री कृष्ण उवाच – हे अर्जुन! सोभाग्यकांक्षी कन्या को बेचनेवाला सतत् रोगी रहता है। कन्या का पैसा लेने वाले को कर्म रूपी खुजली हो जाती है, जिससे वह नरक ही भोगता रहता है। कन्या तो प्रत्येक काम में शुभ शकुन मानी जाती हैं और यह घर की लक्ष्मी है। घर की लक्ष्मी को बेचनेवाला कभी आगे बढ़ नहीं सकता है और वह कभी सुख से जी नहीं सकता है। तो माताजी ने कहा -दस कन्या को धर्म परणाओ।
स्वार्थ काजन अकरम करना गाँठ ग्यारह सत्मारग चलना
सत् पुरुषों ने कहा है- स्वार्थ भयंकर जहर है। दूध के भरे हुए घड़े में जैसे जहर की एक बूंद गिरने से वह प्राणदारी पथ प्राणनाशी बन जाता हैं। इसी प्रकार हम जो भी कार्य करते हैं, उसमे स्वार्थ का जहर मिलने से वह कार्य अकार्य हो जाता है और स्वार्थपूर्ण कृत्य दूसरों के लिए निशिचत रूप से दुःखदाई ही होता है
स्वार्थ के जल से सींची हुई बेल पर जहरीले फल लगते हैं और उन फलों का रस रस नहीं, मानवता का रक्त होता है। स्वार्थ का मतलब ही है अपना लाभ, अपना हित, अपनी आकांक्षा, महत्वाकांक्षा या इच्छा की पूर्ति का प्रयत्न।
स्वार्थ की दृष्टी बहुत क्षुद्र दृष्टि है। स्वार्थ का वश हुआ मनुष्य सिर्फ अपना और केवल अपना ही लाभ देखता है। जहाँ चिन्तन का दायरा इतना शुद्र हो जाता है कि व्यक्ति अपने सिवाया किसी को देख नहीं सकता। वहाँ वह अपने हित के लिए दूसरों की केवल उपक्षेा ही नहीं करता। उनका अनिष्ट करते हुए भी संकोच नहीं करता।
स्वार्थ अपने पर केन्द्रित होता है, फिर चाहे वह किसी भी दृष्टि से केन्द्रित है। राम ने अपनी बदनामी या लोकापवाद के भय से सीता जैसी महासती को भी घर से निकाल दिया,इसमें राम का स्वार्थ ही तो था? राम को भी अपने यश की निर्मलता का स्वार्थ और इस कारण एक गर्ववती कोमलांगी सती को भी जंगल-जंगल भटकने पर मजबूर करने से वे रुके नहीं। सीता के अगणित कष्टों का कारण और क्या था?
सती न सीता सरकी, रती न राम समान
जती न जम्बू सारका, गति न मोक्ष समान
महाभारत का भयंकर युद्ध क्यों हुआ? दुर्योधन का स्वार्थ। संपूर्ण भारतवर्ष का एक छत्र शासन बनने का क्रूर स्वार्थ ही तो महाभारत का मूल है।
स्वार्थ ने संसार में आतंक व नरसंहार मचाया। दूसरों को सदा पीड़ित-उत्पीड़ित किया। सृष्टि में भयानक कोई जहर है तो वह स्वार्थ।
आई माताजी ने कहा – स्वार्थ कारज अकरम न करना। स्वार्थ का मन कुटिल रहता है, वचन असत्य से भरा हुआ, काम कुचेष्ठाओं के बल से टेडी। उस परिस्थिति में जीवन का सौन्दर्य किस प्रकार चमक सकता है? उज्जवल भविष्य की शान्त-शीतल सुखद किरणें किस प्रकार बिखर सकती हैं? स्वार्थ स्वयं अन्धा है। इसलिए आई माताजी ने कहा – स्वार्थ कारज अकरम करना गाँठ।