सत् पुरुषों ने कहा है- सेवा शब्द आकार में जितना लघु (छोटा) है, उतना ही प्रकार में, प्रथम में और व्यवहार में विपरीत है। इस शब्द की गुरुता, गम्भीरता और महत्ता उसके अक्षर समूह से कही अधिक व्यापकता लिए हुए हैं। उसके माध्यम से नर और नारायण दोनों की प्राप्ति होती है।
सेवा एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमे ‘ करनेवाला और पानेवाला’ दोनों ही उपकृत होते हैं। जिसकी सेवा होती है, वह तो उपकृत होता ही है, लेकिन जो सेवा करता है उससे भी गुण अधिक उपकृत होता है। सेवा करने के बाद सेवा करनेवाले को जो आत्मिक सुख, संतोष और आनन्द की अनुभूति होती है, उसे न शब्दों में बांधा जा सकता है, न गजो या मीटरों से मापा जा सकता है और न ही जिहा से कहा जा सकता है। इससे भैतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शांति मिलती है।
इसमें देहिक और देविक दोनों प्रकार की उन्नति सन्निहित हैं और इसके द्वारा सहयोग, सद्कार्य और सद् भाव की त्रिवेणी सुलभ हो जाती है।
समाज के कुछ वर्ग सदा से वैयक्तिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर कमजोर रहते हैं। गांवो में रहनेवाले वनवासी, हरिजन और पिछड़े कहे जाने वाले आते हैं। उनके जीवन की ऊंचा उठाने के लिए व्यक्तियों की सेवा करनी चाहिए। जीव सेवा, शिव सेवा शुद्ध ह्रदय से निकले हुए मार्गदर्शन के उद् गार कभी असर किए बिना नहीं रहते हैं। तो श्री आई माताजी ने कहा – छटे अभ्यागत हो सेवा!