सत् पुरुषों ने कहा है- माता-पिता की सेवा पुत्र का प्रथम कर्तव्य है। माता-पिता कभी सन्तान का बुरा नहीं चाहते, इसलिए उनके इरादे की कद्र करनी चाहिए। माता के समान पूजनीय विभूति संसार में दूसरी नहीं होती। माता-पिता का उपकार का बदला अपनी चमड़ी के जूते पहनाने से भी नहीं उतरता है। उनके ऋण सन्तान जन्म भर में नहीं चूका सकती। सन्तान के लिए तो माता-पिता ही प्रथम गुरु और सर्वथा पूज्य हैं।
सुन जननी सोई सूत बड़ भागी।
जो पितु-मात चरण अनुरागी।।
माता तीरथ पिता तीरथ, खरु तीरथ ज्येष्ठ बान्धवा।
वचने वचने गुरु तीरथ, खरु तीरथ परमेश्वरा।।
माता के समान तीर्थ नहीं, माता के समान आश्रय स्थल नहीं। माता के समान कोई रक्षा करनेवाला नहीं, माता समान तृषा को छिपाने वाला कोई स्थान नहीं। माता समान कोई शीतल नहीं, माता के समान कोई छाया नहीं, माता के समान कोई हित करने वाला नहीं। माता गंगा समान तीर्थ है, पिता ये पुष्कर तीर्थ है। इसलिए माता-पिता की सतत सेवा करनी चाहिए। माता-पिता की नित्य सेवा करना उत्तम पुण्य कार्य है।
माता-पिता का वंदन करने से मानव को आयुष्य, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य बल, स्त्री, पुत्र, सुख, धन और धान्य मिलते हैं। माता-पिता के समान दूसरा देव नहीं। इन्हीं कारणों से माता-पिता को हमेशा पूज्य माना जाता है। तीन लोक में माता के समान कोई बड़ा गुरु नहीं, गंगा समान कोई तीर्थ नहीं, भगवान विष्णु समान कोई प्रभु नहीं, शिव समान कोई पूजनीय नहीं।
माता सर्व तीर्थ रूप है, पिता सर्व देव रूप है। इसलिए माता-पिता की सर्व प्रयत्न से पूजा करनी चाहिए। जो माता पिता को सब तरह से संतोष देता है, वह तप और व्रत है। यही सबसे बड़ा धर्म है। माता ने कहा- पंचम माता-पिता की सेवा।