श्री आई पंथ में बीज पर्वों का महत्व

भारतवर्ष की उर्वरा धरती देवों और वीरों की जन्मदात्री रही हैं । साथ ही विभिन्न धर्मों, मतों, पंथों एवं सम्प्रदायों की उद्वभव स्थली होने के साथ अपने आंचल में विभिन्न धर्मो, भाषाओं और लोक संस्कृतियों को समेटे हुए हैं । यहाँ का हर एक दिन किसी न किसी पर्व के रूप में अवश्य ही मनाता जाता है। इसी कारण यहां सात वार तेरह त्योंहार की कहावत प्रचलित है। इस संघर्ष मय संसार की कटुस्मृतियों जीवन के उत्पीड़न शोक चिन्ता और दुःख को भुलाकर मानव-मन मुस्करा सके और सबके संग बैठकर हंस सके और गा सके, इन्हीं प्रवृतियों ने मिलकर हमारे त्यौहारों को जन्म दिया। ये त्यौहार, पर्व और उत्सव न केवल हमें आनन्द की अनुभूति कराते हैं, बल्कि आपसी मेल-जोल, सद् भाव तथा मातृत्व प्रम को भी बढ़ाते हौं । हमारे देश में विभिन्न धर्मो,सम्प्रदायों, सम्प्रदायों और जातियों के अपने-अपने,अलग-अलग त्यौंहार व उत्सव-पर्व है । जिसे उस जाति-सम्प्रदाय विशेष के लोग एकत्र होकर,अपनी-अपनी अनूठी शैलियों में विभिन्न तौर-तरीकें से उसे मनाते हैं। ऐसे ही उत्सवों की श्रृंखला में हमारे ‘सीरवी-समाज व आई-पंथ के प्रमुख धार्मिक उत्सव त्यौंहार है। बीज महोत्सव हमारी गौरवमयी संस्कृति में त्यौंहार, माला में मोतियों की भांति पिरोये हुए हैं, उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता । प्रत्येक उत्सव-पर्व और त्यौहारों का अपना विशिष्ट धार्मिक, सामाजिक, संस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व होता है। उसके पीछे कोई न कोई कारण और विशिष्ट घटना होती हैं ।

‘आई-पंथ’ के समस्त बाण्डेरूओं और ‘सीरवी-समाज’ के लिए ‘बीज-पर्वो’ का अपना विशेष महत्व है । ‘आई-पंथ की अधिष्ठात्री देवी ‘श्री आई माताजी’ ने वैसे तो बारह-मास की चांदनी-बीजों का भी महत्व बताया और कहा कि प्रत्येक़ मास की चांदनी बीज को सभी बाण्डेरू अपने-अपने व्यवसाय से अवकाश रखकर व्रत-उपवास रखेंगे तथा मन्दिर में माताजी के और चन्द्र दर्शन करेंगे व भजन-कीर्तन करेंगे । लेकिन आज हम केवल बड़ी बीजों-भादवी बीज, चौत्र सुद्री बीज, वैशाख सुदी बीज और माघ सुदी बीज को ही त्यौंहार रूप में मनाते रहे हैं । इन चार बड़ी बीजों का महत्व इस प्रकार हैं ।

 

भादवी बीज :- हर वर्ष भाद्रपद महीनें के शुक्ल पक्ष की द्वितीया (बीज) को ‘सीरवी-समाज’ अपने सबसे बड़े धार्मिक त्यौंहार ‘भादवी बीज’ के रूप में मनाते हैं । ‘श्री आईजी’ का अवतार गुजरात के अम्बापुर में बीकाजी डाबी के यहां एक उद्यान में विक्रम सम्वत् 1472 को भादवी बीज (शानिवार) के दिन शैल पुत्री रूप में हुआ था । इस प्रकार ‘भादवी-बीज’ मां आईजी का जन्म दिन भी है । मां आईजी’ ने मांडू के बादशाह महमूद खिलजी का मान-गर्दन करने के बाद वृद्धा का रूप धारण कर नंदी एवं धार्मिक साहित्य को साथ लेकर अपनी शिक्षाओं व पंथ का प्रचार करने हेतु पैदल ही यात्रा शुरू की थी । सर्वप्रथम उन्होंने नारलाई में अपना जग-जाहिर चमत्कार, शिव-मन्दिर के पट अपने आप खुलना, अधर शिला एवं गुफा का निर्माण आदि बताकर अखण्ड ज्योति की स्थापना भी इसी शुभ दिन भादवी बीज को ही की थी । इस तरह भादवी बीज ‘अखण्ड ज्योति प्रज्वलन’ का शुभारम्भ दिन भी है । नारलाई के मन्दिर में आज भी हजारों श्रद्धालु भक्त अखण्ड ज्योति के दर्शन हेतु आते हैं। इसके बाद मां जीजी ने डायलाण में ‘जीजी’ बड़ प्रकटोने का चमत्कार, भेसाणा में ग्वालों का मान-मर्दन, सोजत में मेवाड़ के राणा रायमल को दिया वरदान, बगड़ी सेहवाज में मालिन को परचा, बीलावास में बिलोजी जो आशीष और पतालियावास में ‘जीजी पाल प्रकटाना’ आदि स्थानों पर दिव्य चमत्कार बताती हुई ‘जीजी’ जब बिलाड़ा आयी थी तब भी वह शुभ दिन भादवी बीज ही था । विक्रम सम्वत् 1525 में जब ‘मां आईजी’ ने बिलाड़ा में अखण्ड ज्योति की स्थापना की, तब वह शुभ दिन भी भादवी-बीज ही था । जीजी’ के बिलाड़ा आगमन के सम्बन्ध में एक दोहा प्रचलित है –
“पनरै सौ इकबीस में, सुद भादवा बीज शनिवास । बीज विराज्या बीलपुर, आई आप पधार ।। बिलाड़ा आने पर ही ‘जीजी’ श्री आईमाताजी” के नाम से प्रसिद्ध हुई । हम देखते है कि ‘भादवी-बीज’ का त्यौहार श्री आईजी का जन्मदिन ‘प्रथम अखण्ड-ज्योति स्थापना दिवस’ और श्री आइजी के बिलाड़ा आगमन दिवस के कारण ‘आई-पंथ’ में अपना विशिष्ट महत्व रखता है। कहा भी गया है – संवत् भिन्न-भिन्न थे लेकिन, दिन भादवी बीज शनिवार । इसी तिथि को अम्बापुर में, जीजी मैया ले अवतार ।। नारलाई में अखण्ड-ज्योति भी, भादवी-बीज को जलाई थी । इसी पावन दिन को मैया, नगर बिलाड़ा आई थी। इन कारणों से ही भादवी-बीज का दिन आई पंथ के प्रमुख त्यौंहार रूप में हर वर्ष मनाया जाता है ।

 

चैत्र सुदी बीज : हर वर्ष चैत्र महीने की प्रतिपदा का दिन विक्रम सम्वत् में नव वर्ष की शुरूआत माना जाता है । माँ श्री आईजी ने जिस उद्देश्य के लिए इस पावन धरा पर अवतार लिया था । अपने हजारों भक्तों को आपना अन्तिम उपदेश सुनाकर श्री आईजी ने अपने निवास स्थान साल (छोटी कोटड़ी) में 7 दिन तक ईश्वर आराधना में बैठने का निश्चय किया । घृत का दीप जलाकर कोटड़ी में 7 दिन तक दरवाजा बन्द करके बैठने से पूर्व अपने भक्तों व दीवान गोयन्ददासजी से कहा कि “मैं ईश्वर आराधना में लीन होना चाहती हूं । अत : 7 दिन तक मेरे कक्ष(कोटड़ी) का द्वार मत खोलना। ” लेकिन हजारों भक्तों के बार-बार आग्रह करने पर विवश होकर दीवान गोयन्ददासज़ी ने पाँचवे दिन ही किवाड़ खोल दिये जैसे ही कोटड़ी के कपाट खुले तो लोगों ने अलौकिक ज्योति को आकाश की और जाते देखा। गादी पर श्री आईमाताजी का भगवा चोला, मोजड़ी, ग्रन्थ व माला तथा पाँच श्रीफल ही मिले । वे आज दिन भी (500 वर्ष बीत जाने पर भी) बिलाड़ा बडेर में माताजी के निज मन्दिर में मौजूद है। इस प्रकार विक्रम सम्वत् 1561 चैत्र सुदी बीज शानिवार के शुभ दिन श्री आईमाताजी’ अन्तध्यान होकर ज्योति में समा गई । तब से अखण्ड-ज्योति का महत्व अधिक बढ़ गया है । चैत्र सुदी बीज का दिन ‘श्री आईजी’ का ज्योति में विलीन होने का दिन होने के कारण हर वर्ष त्यौहार के रूप में मनाया जाता हैं । इस दिन बिलाड़ा में माँ श्री आईजी के नाम से चैत्र सुदी बीज को विशाल मेला प्रतिवर्ष लगता है ।

 

वैशाख सुदी बीज : प्रतिवर्ष वैशाख महीन के शुक्ल पक्ष की बीज को यह पर्व मनाया जाता है । इस दिन को श्री आईजी ने अपने हाथों से जाणोजी के पुत्र माधवजी का विवाह नागोजी हाम्बड़ की पुत्री सुलक्षण कन्या सोढी के साथ विधिवत सम्पन्न करवाया था । इस शुभ दिन को किसान अपने हल-बैलों की पूजा करता है, तथा माँ श्री आईजी से प्रार्थना करते हुए अपने खेत में इस आशा और अमंग से हल चलाता है कि उसके खेत-खलिहान अपार पैदावार से भर जाय । सीरवी-समाज में इस दिन विवाह भी अधिक होते हैं ।

 

माघ सुदी बीज : विक्रम सम्वत 1557 माघ सुदी बीज शनिवार के शुभ श्री आईमाताजी ने माधवजी के सुपुत्र श्री गोयन्ददासजी को पाट पर बैठाकर अपने आई-पंथ का प्रथम दीवान (धर्मगुरू) नियुक्त किया था । तभी से इस बीज का भी विशेष महत्व बना हुआ है । इन बीज-पर्वो पर श्री आईजी के अनुयायी व्रत रखते है तथा अपने व्यवसाय कार्य का अगता रखते है । बीज की पूर्व सन्ध्या को मन्दिरों में भजन-कीर्तन होता है । दूसरे दिन अर्थात् बीज के दिन लोग अपने घर बने पकवानों का धूप-धान लेकर मन्दिर में आते है । तथा माताजी को नारियल व प्रसाद चढ़ाते है । मन्दिर में इकट्ठे हुए नैवेद्य को मन्दिर में उपस्थित श्रद्धालुओं के बीच ‘प्रसाद’ रूप में बाँटा जाता है । ‘आई-पंथ’ के मुख्य मन्दिर बिलाड़ा में घर घर से इकट्ठे हुए दूध को अबोट रूप में जमाकर उसका बिलौवना मन्दिर परिसर में करके उससे प्राप्त घी से ‘अखण्ड-ज्योति’ का दीपक भरा जाता है । इस दिन लोग अपने घरों में खीर-लापसी बनाते है । उसे घर-घर बॉटते है । श्रद्धालु इस दिन अपनी गायों-भैंसों के दूध को भी घर-घर बांटते हैं । भादवी-बीज के दिन मन्दिर में जलती अखण्ड-ज्योति को दीवानजी अपने हाथों से बदलते है । जिसे मारवाड़ी व आम बोल-चाल की भाषा में ‘दीया भरना’ भी कहते है। ‘सीरवी-समाज’ में इन बीज पर्वो पर शादी-विवाह, आणा-मुकलावा, और बीज व्रत उजवणा भी होता है । बिलाड़ा में और स्थानों पर इन चारों प्रमुख बीज-महोत्सव पर मेले लगते है तथा ‘आई-पंथ’ के प्रमुख धार्मिक रथ ‘भैल’ का बधावणा भी होता है । ‘श्री आईजी’ के जीवन से सम्बन्धित झांकियॉ व शोभा-यात्रा निकाली जाती हैं । लोग नाचते-गाते इस पर्व पर अपनी श्रद्धा और भक्ति के भाव-पुष्प ‘मां श्री
आईजी’ के पावन चरणों में शत्-शत् बार अर्पित कर अपने को धन्य व कृतार्थ मानते है ।

 

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