आई-पंथ’ का धर्मरथ : माताजी की भैल मनुष्य जीवन एक दुर्लभ सम्पति है । यह जीवात्मा चौरासी लाख जीव-योनियों में भटकने के बाद अपने सद्कर्मो के पारितोषिक रुप यह देव-दुर्लभ मानव-देह धारण करता है । मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है, धर्म, अर्थ, काम ओर मोक्ष। जीवन में धर्म अर्थात् धार्मिक विचारों और भावों को जाग्रत कर सदाचारमय आचरण करने से ही हमारी बुद्धि सदा सत्यपथ गामिनी बनकर हमें सदा कल्याण मार्ग की और प्रेरित करती हैं । मानव-जीवन को सुख-शान्ति की दिव्य अनुभूति के लिए सदाचार, स्वाध्याय, सत्संग, सुविचार, सेवाभाव, सतत् पुरुषार्थ, सादा ओर संयमी जीवन, यज्ञ, दान ओर तप जेसे सदगुण रुपी सुमनों को अपने जीवनोघान में विकासित करने की भी महत्ती आवश्यकता होती हैं । किसी मनीषी ने ठीक ही कहा है । कि – धर्माचरण वह पावन जाहनवी हैं, जिसके निर्मल जल में नहाती हुई आत्मा अपने दुष्कर्मो रुपी मैल को धोकर परमात्म-पद को प्राप्त कर सांसरिक मोह-माया के बंधनो से मुक्त हो सकता हैं । लोगो को धर्म का महत्व बताने और उनके जीवन का धर्माचरण रुपी सात्विक सुगन्धित कमल का पुष्प बनाकर, यश-कीर्ति के पराग से मोक्ष-प्राप्ति तक पहुँचाने के लिए साधु-सन्त और ऋषि, मुनि साधक व तपस्वी जन अपने-अपने तरीके से प्रचार करते हैं । प्राचीन ग्रंथों के आख्यानों के माध्यम से जन-साधारण का दिशा-निर्देश करते हैं । मनुष्य मे धर्म-प्रधान नैतिक गुणों को धारण कर सद्कृत्य करने की शक्ति भरते हैं । धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास हैं । धर्म ही मनुष्य में नैतिक गुणों का विकास कर उसे देव तुल्य बनाता हैं ।‘आई-पंथ’ की अधिष्ठात्री देवी मॉ ‘श्री आईजी’ ने अपने अनुयायियों को 11 नियमों का पालन कर जीवन को सुखी बनाने की सीख दी थी । आज भी उनके विदेशों का प्रचार-प्रसार करते हेतु एक ‘धर्म-रथ’ मारवाड़, गोड़वाड़ और नीमाड़ आदि क्षेत्रों में घूमता है और लोगों को डोराबन्ध कर उन्हें ‘आई-पंथ’का अनुयायी बनाता है । यह धर्मरथ, जिसे लोग आम बोलचाल मे ‘माताजी की भैल’ कहते है । यह रथनुमा गाड़ी कब से, क्यों और किस उद्देश्य से आरम्भ हुई और वर्तमान में यह किस रूप में बांडेरुऔ के दर्शनार्थ आती है । इसकी जानकारी आप सभी पाठकवृंन्दो तक मैं इस लेख के माध्यम से आप तक पहुंचा रहा हूं । नव दुर्गावतार माँ भगवती ‘श्री आईजी’ विक्रम संवत् 1472 में गुजरात के अम्बापुर ग्राम में बीकाजी डाबी की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें एक कन्या-रूप में बगीचे में अवतरित होकर मिली थी । ‘श्री आईजी’ शैल-पुत्री का अवतार मानी जाती है ।| अद्भुत रुप-लावण्य की धनी ‘जीजी’ ने मांडूगढ़ के आततायी शासक महमूद खिलजी का मान-मर्दन कर अपने विभिन्न चमत्कारों से जन-साधारण को लाभान्वित करती हुई वृद्धा रूप धारण कर पोठिया (नन्दी, बैल) संग नारलाई, भैंसाणा, डायलाना, सेवाज, सोजत, बिलावास और पतालिवास आदि स्थानों पर विभिन्न चमत्कार बताती हुई विक्रमी संवत् 1521 में बिलाडा़ आई । बिलाडा़ आने से ही ‘जीजी’ का नाम ‘श्री आईमाताजी’ पडा़ । बिलाडा़ में ‘श्री आईमाताजी’ पहले नगोजी हाम्बड़ की पोल पधारी । वहाँ पर समुचित आदर सत्कार नहीं मिलने पर माताजी जाणोजी राठौड़ की गवाड़ी में पधारी । जाणोजी के सेवा-भाव से प्रसन्न होकर ‘श्री आईजी’ ने उनके खोए पुत्र माधवजी को मिलाया । तभी से यह उक्ति प्रचलित है – “जाणोजी ने जाणिया नै माधवजी ने आणिया” जाणोजी के बाद माधवजी उनके उत्तराधिकारी बने । माधवजी दिन-रात श्री आईमाताजी की सेवा करते और उनकी शिक्षाओं का प्रचार करते थे । वे गाँव-गाँव घूमकर लोगों को बिना जाति-पाँति का भेदभाव किए उन्हें डोराबन्ध बनाकर ‘आई-पंथ’ मैं दीक्षित करते थे । एक बार माधवदासजी ने माँ श्री आईजी से अर्ज की कि…. “माँ ! आप मेरे साथ घूम-घुमकर आई-पंथ का प्रचार करे । लोगों में आपके प्रति अपार श्रद्धा हैं । “माधवजी की बात सुनकर श्री आई माताजी ने कहा – “माधव ! वृद्धावस्था के कारण मुझे चलने-फिरने में कठिनाई होती है । यद्यपि मैं गाँव-गाँव घूमकर लोगों के कष्ट दूर कर उनको सदाचरण का पाठ पढ़ाने की इच्छा रखती हुं । तुम मेरे लिए एक बैलगाड़ीनुमा रथ बनाओ । मैं, इसमें बैठकर तुम्हारे साथ गाँव-गाँव धर्म प्रचार करूंगी ।” तब माधवजी ने ‘श्री आईजी’ की आज्ञा से एक गाडी़नुमा रथ बनवाया, जो आज तक चल रहा है ।
“श्री आईजी की आज्ञा से, जो माधव जी ने रथ बनवाया ।
धर्म-प्रचार का वही रथ, श्री माताजी का भैल कहलाया।।
दो बैलों की सहायता से हांका जाने वाला यह बैलगाड़ीनुमा रथ, जिसपर गुम्बज की भांति भगवा कपडे़ से बनी पालकी, जिसके शीर्ष पर सोने-चांदी और पीतल की नक्कासी भी इस रथ के अनेक भागों पर की गई है । पहले इस रथ की ‘पालकी में ‘श्री आईजी’ स्वयं विराजमान होकर गाँव-गाँव घूमकर धर्म-प्रचार करती थी । जिसे माधवदासजी स्वयं हाँकते थे । यही रथ ‘आई-पंथ’ का धर्मरथ तथा माताजी का भैल कहलाता है । यही धर्म-रथ आज भी ‘आईपंथ’ के डोराबन्ध अनुयायियों के लिए दर्शनार्थ व जात के लिए उन गांवो में घूमता है, जहाँ माताजी के अनुयायी ‘सीरवी’ जाति व अन्य डोराबन्ध भक्त रहते हैं । पहले इस रथ के साथ ‘दीवानजी’ व ‘जती महाराज’ ही रहते थे । पर अब कई बार तो ‘जती बाबाजी’ किसी बाबा को नियुक्त कर भैल के साथ भेज देते है । इस धर्म-रथ का मुख्य अधिकारी ‘जती बाबा’ कहलाते है । अब प्रश्न उठता है कि श्री आई माताजी ने ‘जती बाबा’ का पद कब स्थापित किया ? और किसे प्रथम बार ‘जती’ का पद किस रूप में प्रदान किया ? जब माधवदासजी ने यह धर्म-रथ बनवाकर उसमें ‘श्री आईमाताजी’ को विराजमान कर धर्म-प्रचार हेतु अपनी यात्रा प्रारम्भ की और सर्वप्रथम बिलाडा़ से रवाना होकर बीलावास ग्राम पधारे । तब वहाँ ग्रामवासियों ने धर्म-रथ का खूब आदर सत्कार किया तथा श्री आईजी बहुत सेवा की । वहाँ से बडी़ संख्या में लोग आईमाताजी के डोराबन्ध अनुयायी बने । वहाँ कुछ दिन रहकर माताजी नाडोल पधारे । नाडोल वासियों ने धर्म-रथ का बधावाकर उन्हें ग्राम में ठहराया । वहाँ से ये धर्म-रथ कोटड़ी ग्राम पहुँचा । जहाँ बहुत से लोग माताजी के अनुयायी बने । कोटड़ी ग्राम में ही एक साधु गुंसाई (गोस्वमी) डूंगरगिरीजी महराज का आश्रम था । श्री आईमाताजी ने इसी आश्रम में रात्रि विश्राम किया । रात्रि को भजन-कीर्तन हुआ । डूंगरगिरीजी महाराज श्री आईमाताजी के उपदेशों से बहुत प्रभावित हुए । वे और उनके शिष्य भी आई-पंथ के डोराबन्ध अनुयायी बने । डूंगरगिरीजी महाराज के चार शिष्य थे । जो बहुत ही ज्ञानी थे । श्री आईममाताजी ने डूंगरगिरीजी के दो शिष्यों को अपने पंथ का प्रचार-प्रसार करने एंव ज्योति की पुजा-अर्चना के लिए मांगा । तब डूंगरगिरीजी ने सहर्ष अपने दो शिष्यों रुपगिरीजी एंव केशवगिरीजी को श्री आईममाताजी को सुपुर्द कर दिया । अनेक गाँवो से धर्म-प्रचार करने के बाद जब ‘श्रीआईजी’ वापस बिलाडा़ पधारी, तब माताजी ने डूंगरगिरीजी के उन दो शिष्यों मे से एक को अपने रथ (भैल) का मुख्य अधिकारी बनाकर ‘जती’ पद देकर धर्म-प्रचार करने का कार्य सौंपा तथा दुसरे शिष्य को अपने द्वारा स्थापित ज्योति को देखभाल व पुजा-अर्चना करने वाला पूजारी नियुक्ति किया । जो ‘डांगरिया बाबा’ कहलाते है । तब से इस रथ का दायित्व ‘जती बाबा’ ओर पुजा-अर्चना का कार्य अन्य बाबा देखते हैं ।
बिलाडा़ मे अन्तर्ध्यान (ज्योति मे समा जाना) होने से पहले ‘श्री आईजी’ इस धर्मरथ मे स्वयं विराजमान होती थी । उनके दिव्य अखण्ड ज्योति मे समाहित हो जाने पर अब इस रथ मे ‘श्री आईमाताजी’ की तस्वीर, आत्म-दर्शन हेतु दर्पण, अखण्ड ज्योति और माताजी के स्मृति-चिन्ह रखे हुए हैं । यह मन्दिर का ही लघुरूप है । जो लोग मुख्य निज मंदिर में आकर ‘श्री आईजी’ के दर्शन नहीं कर पाते हैं वे लोग इसी धर्म-रथ का दर्शन कर लाभान्वित होते हैं । यह रथ (भैल) वर्षभर बाहर घूम-घूमकर आई-पंथ का प्रचार एवं आई-पंथ के अनुयायियों से जात लेने का कार्य करती है । चार बड़ी बीज यथा-चैत्र सुदी बीज, वैशाख सुदी बीज, भादवा सुदी बीज, और माघ सुदी बीज को यह धर्मरथ जहां कही भी हो,बिलाडा़ आ जाता है । यहां पर इस समारोह पूर्वक बधाकर मंदिर-प्रांगण में प्रवेश कराया जाता है । कहा भी गया है कि –
“मारवाड़, मामीड़, गोड़वाड़ के, गाँव गाँव भैल जाती है । आई-पंथ का प्रचार करके, यह जात उगाह कर लाती हे।।
चैत्र, वैशाख, भादवा माही बीज को, फिर लौट बिलाडा़ आती है । होता बधावा बडी़ शान से, तब मन्दिर में गौजार आती है।।”
आई-पंथ के अनुयायी द्वारा ‘बीजव्रत’ उजवणा (उघापन) करने पर सर्वप्रथम ‘भैल’ को न्योता दिया जाता है । समाज के माननीय पंच, कोटवाल -जमादारी व अन्य स्वगौत्र भाईपा के साथ आकर बढेर बिलाडा़ में जती महाराज के पास भैल का न्यौता-नारियल दिया जाता है । जहाँ-जहाँ भी ‘बीज’ उजवाणा होता है । भेल सभी स्थानों पर पहुंचती हैं । तब लोग मंगलाचार एंव जय-जयकार के साथ ‘जती बाबाजी’ व अन्य बाबा लोगों, पंचों व सगे-संबंधियों की उपस्थिति में मातृशक्ति द्वारा कुंकुम-तिलक कर माल्यार्पण व नारियल अर्पण कर ‘भैल’ का बाजे-गाजे के साथ बधावा होता है । भैल मे जुते हुए बैलौं, भैल के मुख्य स्तंभ पर बैठे गजानंदजी, बाबाजी व अन्य लोगों को तिलक कर मालाएं पहनाई जाती है और गुलाल-अबीर उड़ाई जाती है । साथ ही जल-आरती करने के बाद लाल-सफेद पद वस्त्र बिछाकर भैल-निमंत्रणकर्ता के घर-आंगन तक ले जाया जाता है । बाद में भैलियो रे दाना पानी आदि की व्यवस्था होती है । लोग भैल मैं विराजित ‘श्री आईजी’ के दर्शन कर श्रद्धा भक्ति से कुछ रुपए भेंट कर नमन करते हैं । फिर होता है ‘पंचो का पौथिया’ (भोजन की पंगत) । ‘जती बाबाजी’ के सानिध्य में सम्बन्धित ग्राम-पंचो, न्योता देने वाले के भाइपा वाले व प्रमुख रिश्तेदार आदि पंगतवार बैठकर भोजन करते है । घी की चरी से आरती होती हैं । इस पौंथिए पर साफा बांधकर बैठने की कथित अनिवार्यता मानी जाती है । पौंथिया पंचों की थोथी शान है कई संकीर्ण विचारों वाले पंच बड़े गर्व से अन्य लोगों को यह कहते हुए देखे जाते हैं कि “मैं तो पौंथियो माते जीमने वाला हौ” पौंथियो हो जाने पर श्रद्धालु भैल की जात अपनी आर्थिक क्षमतानुसार करते हैं । फिर ‘जत्ती बाबाजी’ उसे व उसके निकट के परिजनों को ‘पाग’ बंधाते हैं । फिर ‘पाग’ की जात होती है । इस प्रकार सगे सम्बन्धियों और परिजनों की उपस्थिति में बीज व्रत का उजवना सफल हो जाता है । ‘बीज पर्व’ पर कई बार इस धर्म रथ (भैल) का न्योता आठ दस जगह पर होता है । ऐसे में ‘भैल’ ट्रक द्वारा पहुंचती हैं । और शाम तक उसका बधावा होता रहता है । तब पौंथिया देर रात तक होता है । ऐसे समय में पंच लोग भी जहां उनकी इच्छा पहले होती है, पौंथिया करवा लेते हैं । अधिक न्योता होने पर ‘जती बाबाजी’ को भी चाहिए कि वे अन्य डांगरिया बाबाजी के सानिध्य में पौंथिया करवाने की व्यवस्था करें तथा पंचों को भी चाहिए कि वह भी दो-दो चार-चार बंट कर समय पर पौंथिया रस्म अदा करें । कई बार पंच लोग तो धरे रह जाते हैं और अडूड़ पंच अपना प्रभाव दिखा देते हैं । कहने का आश्चर्य है पंचों को चाहिए कि जिसने भैल न्यौति है उसकी व्यवस्था का भी ध्यान रख कर पौंथिया व अन्य सामाजिक रस्मों का निर्वहन करें । कई बार पंच लोग अपनी व्यक्तिगत द्वेषता से भैल नियंत्रणकर्ता को परेशान करते हैं जो सामाजिक एकता में अलगाव से उत्पन्न कर देते हैं । यह धर्म रथ जब गांव गांव में जात उगाही पर जाता है, ग्रामवासी उसे बाजे गाजे के साथ बधावा कर बडेर तक ले जाते हैं । प्रत्येक घर से पांच रुपये व पायली जौ जात रुप में ली जाती है । बदले में मिलती है आशीष व बेलें । लाखों रुपए की जात और भैल में चढ़ावे रूप में अर्पण किया धन कहां और किस रूप में खर्च होता है । यह आई पंथ के अनुयायियों की जानकारी में नहीं होता है । समाज भी इस मामले में अनभिज्ञ ही है । अब समाज इस बारे में जागरूक हो भैल से सम्बन्ध रखने वाली बाबा मंडली से जानकारी लें । यह धर्म रथ भैल आई पंथ के अनुयायियों व अन्य श्रद्धालुओं, भक्तों के लिए नीज मंदिर का चलता फिरता लघु रूप है । तथा श्री आईमाताजी की अमर निशानी है जो सभी के लिए पूजनीय योग्य व दर्शन योग्य है । इस भैल को हांकने वाले भैल भी पूजनीय व नमन योग्य हैं । ‘मीडिया बैल’ तो इस रथ में जुतकर अमर हो गया । जिसके अनेक किस्से हैं । जो उसकी श्री आईजी के प्रति असीम श्रद्धा व भक्ति भावना के प्रमाण है।
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